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वेद स्तुति 26,39, उतरा, लेफ्ट

 ŚB 10.87.39 यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणि: असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगव न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद् भवत: ॥ ३९ ॥ यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने हृदय की विषय वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधको के लिए आप ह्रदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ है, जैसे कोई अपने गले में मणि पहने हुए हो, परंतु उसकी याद न रहनेपर उसे ढूंढता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इंद्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं,विषयों से विरक्त नहीं होते,उन्हें जीवन भर और जीवन के बाद भी दुख-ही-दुख भोगना पड़ता है। क्योंकि वह साधक नहीं, दंभी है। एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरुप न जानने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नर्क आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है। Members of the renounced order who fail to uproot the last traces of material desire in their hearts remain impure, and thus You do not allow them to understand You. Although You are present within their hearts